अल्लाह की उपासना प्रेम, डर, आशा से करना इस्लाम में उपासना की धारणा का एक अनोखा अंदाज़ है| उपासना में प्रेम, डर तथा आशा सम्मिलित होना चाहिए| यह सब सम्मिलित होने पर ही उपासना पूरी और स्वच्छ होती है| इस विषय में दूसरे धर्म का विचार देखिये : ईसाई केवल अल्लाह के दया, करुणा औरप्रेम के बारे में बात करते है और ये भूल जाते है कि अल्लाह (की अवज्ञा) से डरना भी चाहिए| इसी प्रकार यहूदी केवल आशा लगाये रहते है कि अल्लाह उन्हें नरक में नहीं डालेगा, क्यों कि अल्लाह उन्हें बहुत चाहता है| इसके विरुध्ध इस्लाम यह कहता है कि, अल्लाह का प्रेम, उसकी दया की आशा और उसके दंड के भय के साथ उसकी उपासना की जाये| खुरआन का पहला सूरा, सूरा फातिहा में इसका वर्णन किया गया है| आयत 1 “सारी प्रशम्सायें (और धन्यवाद) अल्लाह के लिए (सर्वोत्तम), सारे संसारों का रब (पालनहार)” खुरआन की पहली आयत में, हमारा अल्लाह ताला से प्यार नज़र आता है और जब भी हम यह आयत पढ़ते है, हम अपने प्यार को प्रमाणित करते है| आप पूछ सकते है कि, यह कैसे? वह ऐसे कि, इस आयत में हम कह रहे है कि अल्लाह ताला हमारा रब और सारे जहाँन का रब (पालनहार) है| रब को अकसर ‘प्रभु’ से अनुवाद किया जाता है| परन्तु यह अनुवाद ‘अल्लाह’ का पूर्ण अर्थ नहीं दे सकता| ‘अल्लाह’ के कोई नाम का भी पूर्ण अर्थ अन्य भाषा में अदा करना मुश्किल और कठिन है| इसका सही अर्थ, यह है कि, वह सारे संसारो का सृष्टिकर्ता है; वह हर चीज़ को बनाये रखता है और पोषण करता है; वह जीवन और मृत्यु देता है; हमें जो भी भलाई पहुँचती है वह उसी की ओर से है; हर चीज़ उस पर आधारित है और उसके अनुमति के बिना कुछ नहीं होता| और हम मुसलमानों के लिए वह मार्गदर्शन करता है और हमें उच्च स्वभाव सिखाता है| इस तरह हम प्रमाण करते है कि अल्लाह ताला हमारा रब है| उसी ने हम पर यह सब कृपा की है| इतनी कृपा की है कि हम उसकी गिनती नहीं कर सकते| अर्थात हम उसे क्यों प्यार नहीं करेंगे? इस संसार में यदि कोई हम पर कुछ कृपा करता है तो हम उसके प्रति कितना प्यार दिखाते है| जिस रब (पालनहार) ने हम पर अनगिनत कृपा की है, उस से हम कितना प्यार करना चाहिए ? जैसे – अच्छा परिवार, रहने के लिए घर, सुरक्षा, खाना, स्वास्थ और सब से प्रमुख हमें, इस्लाम और सुन्नत का - सही मार्गदर्शन किया है| हम अल्लाह ताला को बेइंतेहा प्यार करना चाहिए और कहना चाहिए कि – “सारी प्रशंसायें (और धन्यवाद) अल्लाह ताला के लिए है|” आयत 2 “दयावान और क्षमालू” सूरह फातिहा की पहली आयत में कहा गया कि वह रब (पालनहार) है| उसके बाद की आयत में उसके (अल्लाह के) दो खूबसूरत नाम का वर्णन किया गया : ‘अर रहमान और अर रहीम’| ‘अर रहमान’ का अर्थ है कि, वह अत्यंत दयावान है| अर्थात वह लोगो पर बहुत अधिक दया करता है| ‘अर रहीम’ का अर्थ है कि, वह अत्यंत क्षमा करने वाला है| अर्थात वह अपनी सृष्टि पर अधिक से अधिक क्षमा का व्यवहार करता है| जब हम इन दो नमो का वर्णन करते है तो हमें आशा (उम्मीद) होती है| जब हम जान चुके है कि, वह अत्यंत दयावान और क्षमा करने वाला है तो हमें उस पर भरोसा, आशा रखना चाहिए कि, वह हमारे सारे पाप क्षमा कर देगा, चाहे वह कितने ही क्यों न हो| हमें उस से कभी आशा, भरोसा नहीं छोड़ना चाहिए| क्यों कि अल्लाह ताला ने खुरआन में कहा है : “आप कह दें मेरे उन भक्तों से जिन्होंने अपने ऊपर अत्याचार किये हैं की तुम निराश न ही अल्लाह की दया से। वास्तव में अल्लाह क्षमा कर देता है सब पापों को| निश्चय वह अति क्षमी दयावान है|” [खुरआन सूरा ज़ुमर 39:53] आयत 3 “बदला दिए जाने के दिन का मालिक” जब हम यह आयत पढ़ते है तो हमें यह याद रहता है कि, एक दिन (प्रलय के दिन, अंतिम दिन) हम सब अल्लाह ताला के आगे इकठ्ठा किये जायेंगे – नंगे जिस्म, खतनारहित और नंगे पाँव| लोग शराब नहीं पिए हुए होंगे, किन्तु नशे में नज़र आएंगे| उस दिन सब अल्लाह के आगे इकठ्ठा होंगे, आपने बुरे कर्मो का हिसाब देने, यह जानते हुए की उनका एक भी कर्म (चाहे कितना छोटा हो) उस से छुपा हुआ नहीं है| खुरआन में कहा गया : “अतः जो कोई कणभर भी पुण्य करेगा, वह उसे देख लेगा, और जो कोई कणभर भी बुराई करेगा, वह भी उसे देख लेगा|” [खुरआन सूरा ज़िलजाल 99:7,8] यह आयत पढ़ते ही हमें बदले का दिन याद आएगा और हमारे भीतर अल्लाह का डर पैदा होगा| हमें डर होगा कि कही हमारे पाप पुण्य से न बढ़ जाये| अल्लाह हमें ऐसी स्थिति से बचाए| उसके बाद की आयत यह कहती है : “हम तेरी ही बन्दगी करते हैं...|” हम उसकी उपासना कैसे करते है? प्यार, आशा और डर के साथ| इन गुणों को अपने अन्दर पैदा करने के लिए हम यह कहते है : “और तुझी से मदद मांगते है|” [खुरआन सूरा फातिहा 1:4] संतुलन रखना यह समझने के बाद कि, अल्लाह की उपासना प्यार, डर और आशा के साथ करनी चाहिए| यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि, इसका अनुपात कितना होना चाहिए ? इसका उत्तर खुरआन में दिया गया है : “...उसी से डरते हुए तथा आशा रखते हुए प्रार्थना करो...|” [खुरआन सूरा आराफ 7:56] “अलग रहते है उनके पार्शव (पहलू) बिस्तरों से, वह प्रार्थना करते रहते है अपने पालनहार से भय तथा आशा रखते हुए...|” [खुरआन सूरा सजदह 32:16] अर्थात हमारे दिलों में डर और आशा समान रहना चाहिए| अनस रजिअल्लाहुअन्हु ने उल्लेख किया कि, अल्लाह के रसूल ﷺएक युवक के पास पहुंचे, जो मृत्यु के करीब था| आप ﷺने उस युवक से पूछा : “तुम कैसे हो?” उसने उत्तर दिया : “ऐ अल्लाह के रसूल ﷺ! मैं अल्लाह की आशा और अपने पापो के डर के बीच हूँ|” आप ﷺने कहा : “इन दो गुणों का मिश्रण उन लोगो के दिलो में होता है, जिनको अल्लाह ताला वही देता है जिसकी वह आशा करते है और रक्षा करता है जिससे वह डरते है|” [अह्कामुल जनाइज़ नं 2: शैक अल्बानी रहिमहुल्लाह] इसलिए जब भी हम कुछ अच्छा कर्म करते है, हमें आशा रखनी चाहिए कि अल्लाह ताला उसे स्वीकार करेगा| साथ ही यह भय भी रहना चाहिए कि, हमारा अच्छा कर्म कई छोटा तो नहीं या कही अस्वीकार तो न होगा| इसी तरह जब हम पाप करते है तो यह आशा रखनी चाहिए कि अल्लाह, हमारा पश्चाताप स्वीकार करेगा और हमें क्षमा कर देगा| उसी के साथ यह डर भी रहना चाहिए कि कही हमें उस पाप के लिए अल्लाह पकड़ न ले| यह संतुलन इस्लाम के ओर लोगो को बुलाना और आमंत्रित करते समय भी होनी चाहिए| इसलिए जब हम लोगो को इस्लाम की ओर बुलाते है तो उन्हें, अल्लाह ताला से डराना भी चाहिए और अल्लाह टला की रहमत की आशा भी दिलाना चाहिए| किन्तु उन्हें चेतावनी के साथ साथ प्रोत्साहित भी करना चाहिए| उन्हें नरक की आग के साथ साथ स्वर्ग की सुखमय जीवन के बारे में भी बताना चाहिए| अल्लाह ने खुरआन में कहा है : “निस्संदेह आपका पालनहार शीघ्र दंड देने वाला है और वह अति क्षमाशील दयावान (भी) है|” [खुरआन सूरा आराफ 7:167] अबू हुरैरह रजिअल्लाहुअन्हु उल्लेख करते है : “मैंने अल्लाह के रसूल ﷺको ऐसा कहते हुए सुना : बनू इस्राईल में दो लोग थे, जो एक ही लक्ष्य के लिए प्रयत्न कर रहे थे| एक पाप करता था और दूसरा इस संसार के भलाई के लिए प्रयत्न करता था| जो उपासना में लगा हुआ था, उसने देखा कि दूसरा नियमित रूप से पाप कार्यों में लगा हुआ है| वह कहता था : उनसे बचो| एक दिन उसने उसे पाप करते हुए देख लिया और कहा : इससे बचो| दूसरे ने कहा : मुझे अपने पालनहार के साथ छोड़ दो| क्या तुम मुझ पर रखवाली करने के लिए भेजे गए हो ? पहले व्यक्ति ने कहा : अल्लाह की कसम ! अल्लाह तुम्हे क्षमा नहीं करेगा और न ही स्वर्ग में प्रवेश देगा| उसके बाद उनकी मृत्यु हो गयी और वह दोनों अल्लाह के समक्ष मिले| अल्लाह ने उपासना करने वाले व्यक्ति से कहा : क्या तुम्हे मेरा ज्ञान था या कि जो मैं मेरे हाथ में था उस पर तुम्हे आप शक्ति थी? उसके बाद अल्लाह पाप करने वाले से कहा : जाओ मेरे दया से स्वर्ग में प्रवेश करो| अल्लाह ताला ने दूसरे व्यक्ति के बारे में कहा, इसे नरक में ले जाओ| अबू हुरैरह रजिअल्लाहुअन्हु ने कहा : उसकी कसम जिसके हाथ में मेरी जान है ! उसने (उपासना करने वाले) ऐसी बात कही, जिससे उसका यह संसार और अगला संसार नष्ट हो गया| [सुनन अबू दावूद : 4901, शेख अलबनी रहिमहुल्लाह ने इसे प्रमाणित किया कि यह सहीह है] इसलिए हमें किसी के बारे में बुरा नहीं कहना चाहिए, क्यों कि यह बड़ा गुनाह (पाप) है| परन्तु हमें बड़े पाप करने वालो की चिंता होनी चाहिए, क्यों कि उनको दिये जाने वाले दंड का प्रस्ताव खुरआन में है| यह अल्लाह के हाथ में है कि वह उन्हें दंड दे या क्षमा कर दे| इब्न अल खय्यिम रहिमहुल्लाह ने कहा : “विश्वासी का दिल पक्षी जैसा है| प्यार उसका सिर है; डर और आशा उसके पंख जैसे है| जब उसका सिर और पंख अच्छे होते है, तो उसे उड़ने में आसानी होती है| यदि उसका सिर कट गया तो वह मर जाएगी; और जब उसके पंख कट जाते है तो वह किसी का शिकार बन जाती है|” (मदरिज अस सालिकीन: 366) निष्कर्ष, परिणाम अब यह पता चल गया कि, इन तीन गुणों में समानता न होने पर किस तरह मनुष्य सत्य मार्ग से भटक जाता है| हर मुसलमान (विश्वासी) को अपने दिल में इन तीनो का मिश्रण सही रखना चाहिए| डर और आशा समान होनी चाहिए, किन्तु प्यार सबसे बढ़कर होना चाहिए| फुदैल इब्न इय्याद ने कहा : “प्यार डर से बेहतर है| डर बुरे कार्य से रोकता है तथा प्यार जो कार्य बताये गए है उसे प्रसन्न दिल से कराता है|” (मजमु रसाइलहाफिज इब्न रजब: 4/108) आधार http://www.salafipublications.com/sps/sp.cfm?subsecID=IBD01&articleID=IBD010006&articlePages=1 (english) http://abdurrahman.org/salah/worshippingallahoutof.html (english) Source: Ad-Dawah ilalLaah Magazine (english) |