रमज़ान का रोज़ा किस पर अनिवार्य है


रमज़ान के रोज़े(सियामे रमज़ान) इस्लाम के बुनियादी अरकान (स्तम्भों) में से एक रुक्न(स्तम्भ) है, सौम (صوم) का अर्थ है रोज़ा,रोज़े को अराबी भाषा में सौम (صوم) कहते हैं, सौम का बहुवचन सियाम (صيام) आता है, सौम अर्थात एक रोज़ा और सियाम दो से अधिक रोज़े को कहते हैं, सियाम बाब सामा यसूमु (صاميصوم) नसर (نصر) से मसदर है, रोज़े का शाब्दिक अर्थ रोज़ा रखने और रुक जाने के है अर्थात खान पान,अनावश्यक बोल चाल,शारीरिक संभोग से रुक जाना है। (अलखांमूसुल मुहीत :१०२०,ग़रीबुल हदीस :१/३२५), रोज़े का धार्मिक अर्थ (इस्लामी अर्थ): विशेष शरतों के साथ,विशेष दिनों में,विशेष चीज़ों अर्थात खान पान, बुराई अश्लीलता तथा अधर्म के कार्यों और दिन में शारीरिक संभोग से रूक जाने को रोज़ा कहते हैं।   

 

विषय सूची

 

 

ख़ुरान

ऐ ईमान लानेवालो! तुमपर रोज़े अनिवार्य किए गए, जिस प्रकार तुमसे पहले के लोगों पर अनिवार्य किए गए थे, ताकि तुम डर रखनेवाले बन जाओ।, गिनती के कुछ दिनों के लिए - इसपर भी तुममें कोई बीमार हो, या सफ़र में हो तो दूसरे दिनों में संख्या पूरी कर ले। और जिन (बीमार और मुसाफ़िरों) को इसकी (मुहताजों को खिलाने की) सामर्थ्य हो, उनके ज़िम्मे बदले में एक मुहताज का खाना है। फिर जो अपनी ख़ुशी से कुछ और नेकी करे तो यह उसी के लिए अच्छा है और यह कि तुम रोज़ा रखो तो तुम्हारे लिए अधिक उत्तम है, यदि तुम जानो। (सुरह बक़रह: 183 -184)

 

हदीस

मुहम्मद सललेल्लाहु अलैही वसल्लम ने कहा "इस्लाम धर्म की बुनियाद ५ चीज़ों पर है, इस बात की गवाही देना कि अल्लाह सुब्हानहु तआला के सिवा कोई इबादत(पूज्ये) के योग्य नहीं एवं मुहम्मद सललेल्लाहु अलैही वसल्लम उसके बन्दे(भक्त) और रसूल हैं, नमाज़ का आयोजन करना, ज़कात देना, हज करना तथा रमज़ान के रोज़े रखना"।(सही बुख़ारी :८, सही मुस्लिम :१६)

 

आादमी पर रोज़ा उस वक्त अनिवार्य होता है

आादमी पर रोज़ा उस वक्त अनिवार्य होता है जब उसके अंदर पाँच शर्तें पाई जाएं :

सर्व प्रथम : वह मुसलमान हो।

द्वितीय : वह मुकल्लफ़ (अर्थात बुद्धि वाला और बालिग) हो।

तीसरी : वह रोज़ा रखने पर सक्षम हो।

चौथी : वह निवासी हो।

पाँचवी : रूकावटों से खाली हो।

ये पाँचों शर्तें जब भी आदमी के अंदर पाई जायेंगी उस पर रोज़ा रखना अनिवार्य होगा।

 

पहली शर्त

पहली शर्त से काफिर व्यक्ति निकल गया, अतः काफिर पर रोज़ा रखना अनिवार्य नहीं है और न तो उसका रोज़ा रखना ही सही है। तथा अगर वह इस्लाम स्वीकार करेगा तो उसे रोज़े की क़ज़ा का हुक्म नहीं दिया जायेगा।

इसका प्रमाण अल्लाह तआला का यह फरमान है :

﴿وَمَامَنَعَهُمْأَنْتُقْبَلَمِنْهُمْنَفَقَاتُهُمْإِلاَّأَنَّهُمْكَفَرُوابِاللَّهِوَبِرَسُولِهِ﴾[التوبة: 54]

''उनके व्यय के स्वीकार न किए जाने का इसके अतिरिक्त कोई अन्य कारण नहीं कि उन्हों ने अल्लाह और उसके रसूल को मानना अस्वीकार कर दिया।'' (सूरतुत् तौबाः 54)

 

जब उनके कुफ्र के कारण उनके खर्च को - जिसका लाभ दूसरों तक पहुँचने वाला है - स्वीकार नहीं किया जाएगा, तो व्यक्तिगत इबादतों को तो और भी अधिक नहीं स्वीकार किया जाएगा।

रही बात उसके इस्लाम लाने के बाद कज़ा न करने की, तो इसका प्रमाण अल्लाह तआला का यह कथन है :

( قلللذينكفرواإنينتهوايغفرلهمماقدسلف)

''आप काफिरों से कह दीजिए कि यदि वे बाज़ आ जाएं तो उनके बीते हुए पाप क्षमा कर दिए जाएंगे।''

 

तथा अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से तवातुर के तरीक़े से साबित है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इस्लाम लाने वाले को उससे छूटी हुई वाजिबात को कज़ा करने का हुक्म नहीं देते थे।

यदि काफिर इस्लाम नहीं लाया तो क्या रोज़ा छोड़ने पर आखिरत में दंडित किया जायेगा ?

इसका उत्तर यह है कि : हाँ, उसे छोड़ने पर, तथा सभी अनिवार्य चीज़ों को छोड़ने पर उसे दंडित किया जायेगा ; क्योंकि जब अल्लाह का आज्ञाकारी और उसकी शरीअत का प्रतिबद्ध मुसलमान उस पर दंडित किया जाता है, तो घमण्ड करनेवाले काफिर को और अधिक दंडित किया जाना चाहिए। और जब काफिर को अल्लाह के खाना, पानी और कपड़े की नेमतों से लाभान्वित होने पर सज़ा दी जायेगी तो निषिद्ध कामों को करने और वाजिबात को छोड़ने पर वह और अधिक सज़ा का हक़दार है, और यह क़यास के आधार पर है।

रही बात क़ुरआन या हदीस के प्रमाण की तो अल्लाह तआला दायें पक्ष वालों के बारे में फरमाता है कि वे अपराधियों से कहेंगे कि :

﴿ماسلككمفيسقرقالوالمنكمنالمصلينولمنكنطعمالمسكينوكنانخوضمعالخائضينوكنانكذببيومالدين﴾

''तुम्हें किस चीज़ ने नरक में डाल दिया ? वे कहेंगे कि हम नमाज़ पढ़नेवालों में से नहीं थे, और हम मिसकीनों को खाना नहीं खिलाते थे और हम असत्य और अनुचित बातों में घुसने वालों के साथ घुसते थे, तथा हम बदले के दिन (क़ियामत) को झुठलाते थे।''

 

तो इन चार चीज़ों ने ही उन्हें नरक में पहुँचाया है: (हम नमाज़ियों में से नहीं थे) नमाज़, (हम मिसकीनों को खाना नहीं खिलाते थे) ज़कात, (हम असत्य और अनुचित बातों में घुसने वालों के साथ घुसते थे) जैसे अल्लाह की आयतों का मज़ाक उड़ाना, (हम बदला के दिन को झुठलाते थे)।

 

दूसरी शर्त

वह मुकल्लफ हो, और मुकल्लफ बालिग और बुद्धिमान व्यक्ति को कहते हैं, क्योंकि छोटी आयु के साथ और पागलपन के साथ शरीअत के प्रावधानों की पाबंदी लागू नहीं होती है।

बालिग होने की पहचान तीन चीज़ों में से किसी एक के द्वारा होती है।

बुद्धिमान का विपरीत पागल है, अर्थात बुद्धिहीन जैसे पागल, नासमझ और मंदबुद्धि वाला, अतः हर वह आदमी जिसके पास किसी भी तरह से बुद्धि नहीं है, तो वह मुकल्लफ नहीं है, और उनके ऊपर दीन के वाजिबात में से कोई भी कर्तव्य अनिवार्य नहीं है, न नमाज़, न रोज़ा, न खाना खिलाना, अर्थात उसके ऊपर कुछ भी अनिवार्य नहीं है।

 

तीसरी शर्त

''सक्षम'' अर्थात रोज़ा रखने की ताक़त रखनेवाला, रही बात असक्षम और बेबस आदमी की, तो उसके ऊपर रोज़ा अनिवार्य नहीं है। क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान है :

﴿وَمَنْكَانَمَرِيضاًأَوْعَلَىسَفَرٍفَعِدَّةٌمِنْأَيَّامٍأُخَرَ[البقرة: 185]

''और जो बीमार हो या यात्रा पर हो तो वह दूसरे दिनों में उसकी गिन्ती पूरी करे।'' (सूरतुल बक़रा : 185)

 

लेकिन असमर्थता व असक्षमता के दो प्रकार हैं : एक सामयिक असक्षमता और दूसरी स्थायी असक्षमता :

सामयिक बीमारी वह है जो पिछली आयत में वर्णित है (जैसे वह व्यक्ति जिसे ऐसी बीमारी हो जिसके समाप्त होने की आशा हो, और मुसाफिर आदमी, तो इनके लिए रोज़ा तोड़ना जायज़ है, फिर उनसे जो रोज़ा छूट गया है उसकी क़ज़ा करेंगे)।

स्थायी असक्षमता : (जैसे ऐसा बीमार जिसकी बीमारी के ठीक होने की आशा न हो, और वयोवृद्ध जो रोज़ा रखने में असक्षम है।) और वही अल्लाह तआला के इस फरमान में वर्णित है :

﴿وعلىالذينيطيقونهفديةٌطعاممسكين﴾

''और जो लोग (बहुत कठिनाई के साथ) इसकी ताक़त रखते हैं उनके ऊपर एक मिसकीन को खाना खिलाने का फिद्या है।''

इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने इसकी व्याख्या यह की है कि: ''बूढ़ा और बुढ़िया यदि वे दोनों रोज़ा रखने की ताक़त नहीं रखते हैं तो वे दोनों हर दिन के बदले एक मिसकीन को खाना खिलायेंगे।''

 

चौथी शर्त

वह मुक़ीम (निवासी) हो, यदि वह मुसाफिर है तो उसके ऊपर रोज़ा रखना अनिवार्य नहीं है, क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान है :

﴿وَمَنْكَانَمَرِيضاًأَوْعَلَىسَفَرٍفَعِدَّةٌمِنْأَيَّامٍأُخَرَ[البقرة   : 185]

''और जो बीमार हो या यात्रा पर हो तो वह दूसरे दिनों में उसकी गिन्ती पूरी करे।'' (सूरतुल बक़राः 185)

 

और विद्वानों की इस बात पर सर्वसहमति है की मुसाफिर के लिए रोज़ा तोड़ना जायज़ है।

जबकि मुसाफिर के लिए सर्वश्रेष्ठ यह है कि वह सबसे आसान चीज़ करे, यदि रोज़ा रखने से उसे नुकसान पहुँचता है तो उसके लिए रोज़ा रखना हराम है, क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान है :

 ﴿ولاتقتلواأنفسكمإناللهكانبكمرحيما

''तुम अपनी जानों को न मारो, निःसन्देह अल्लाह तुम पर दयालु है।'' (सूरतुन्निसा : 29)

 

यह आयत इस बात को दर्शाती है कि जो चीज़ इन्सान के लिए हानिकारक है उससे उसे रोक दिया गया है।

यदि आप कहें कि : रोज़े को हराम ठहराने वाले नुकसान का मापदंड क्या है ?

तो इसका उत्तर यह है कि : नुक़सान का पता एहसास से होता है, और कभी सूचना से भी होता है, जहाँ तक एहसास की बात है तो स्वयं बीमार व्यक्ति को महसूस हो कि रोज़ा उसे नुक़सान पहुँचा रहा है और उसकी तकलीफ को भड़का रहा है, और उसके अरोग्य होने को विलंब कर रहा है और इसके समान चीज़ें।

जहाँ तक सूचना की बात है तो कोई भरोसेमंद जानकार चिकित्सक इस बात की सूचना दे कि रोज़ा उसे नुकसान पहुँचाता है।

 

पाँचवी शर्त

रूकावटों से खाली होना, यह महिलाओं के साथ विशिष्ट है, चुनाँचे मासिक धर्म वाली और प्रसुता औरत पर रोज़ा अनिवार्य नहीं है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इसे पारित करते हुए फरमाया : ''क्या ऐसा नहीं है कि जब उसे मासिक धर्म होता है तो वह न नमाज़ पढ़ती और न रोज़ा रखती है।''

अतः सर्वसहमति कि साथ उस पर रोज़ा अनिवार्य नहीं है, और न ही उसका रोज़ा रखना सही है, तथा सर्वसहमति के साथ उस पर कजा करना अनिवार्य है।

 

और देखिये

नमाज़, ज़कात, हज, रमजान के रूजे, तौहीद, रिसालत इत्यादि।

 

संदर्भ

पुस्तक: अश्शर्हुल मुमते (6/330) लेखक मोहम्मद बिन सलीह उसैमीन

https://islamqa.info/hi/26814

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